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संत श्री कबीर दास

15वीं शताब्दी के महान संत, कवि और समाज सुधारक थे। उनका जन्म काशी में हुआ और पालन-पोषण जुलाहा परिवार में हुआ। उन्होंने निर्गुण भक्ति का प्रचार किया और जात-पात, मूर्तिपूजा, धर्मांधता व पाखंड का विरोध किया। कबीर की वाणी सधुक्कड़ी भाषा में है, जो आम जनमानस के हृदय को छूती है। उनके दोहे आज भी जीवन के सत्य, प्रेम, और आत्मज्ञान की प्रेरणा देते हैं। कबीर हिन्दू-मुस्लिम एकता के प्रतीक माने जाते हैं और उनका साहित्य ‘बीजक’ में संकलित है।

प्रसिद्ध दोहा:
"बुरा जो देखन मैं चला, बुरा न मिलिया कोय,
जो दिल खोजा आपना, मुझसे बुरा न कोय।"

Kabir Das

कबीर दास – एक दिव्य क्रांतिकारी संत कवि

नाम: संत कबीर दास ( निर्गुण भक्ति परंपरा)

जन्म: 1398 ई. (कुछ मतों के अनुसार 1440), काशी (वर्तमान वाराणसी)

मृत्यु: 1518 ई. (या कुछ मतों में 1510), मगहर, उत्तर प्रदेश

मुख्य काव्यरचनाएं:

  • कबीर के दोहे

  • साखी ग्रंथ

  • रमैनी

  • बीजक (संपादन: धर्मदास)

कबीर दास भारतीय संत परंपरा के ऐसे युग पुरुष थे, जिन्होंने धर्म, जाति, पाखंड और सामाजिक विषमता के विरुद्ध निर्भीक आवाज़ उठाई। वे एक ऐसे कवि-संत थे, जिनके शब्द आज भी जन-जन की चेतना को झकझोरते हैं। उनके दोहे गागर में सागर की तरह छोटे होते हैं, लेकिन जीवन के गूढ़ सत्य को सरल भाषा में कह देते हैं।

जन्म और प्रारंभिक जीवन:

कबीर दास जी का जन्म एक विधवा ब्राह्मणी से हुआ था, किंतु सामाजिक भय के कारण उन्हें त्याग दिया गया। एक जुलाहा दंपती नीरू और नीमा ने उन्हें पाल-पोसकर बड़ा किया। इस्लामिक पृष्ठभूमि में पले-बढ़े कबीर को हिन्दू और मुस्लिम दोनों ही परंपराओं का गहरा ज्ञान था। उन्होंने रामानंदाचार्य को गुरु रूप में अपनाया।

दर्शन और विचारधारा:

कबीर निर्गुण भक्ति के महान प्रवक्ता थे। वे मूर्ति पूजा, तीर्थ, व्रत, जाति-पाँति आदि के विरोधी थे। उनका विश्वास था कि परमात्मा का साक्षात्कार आत्मा के भीतर ही संभव है। उन्होंने भगवान को ‘राम’ कहा, लेकिन यह राम कोई साकार विष्णु अवतार नहीं, बल्कि एक निराकार, सर्वव्यापक ब्रह्म है।

प्रसिद्ध विचार:

"माटी कहे कुम्हार से, तू क्या रौंदे मोहे।एक दिन ऐसा आएगा, मैं रौंदूंगी तोहे।।"

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रचनाशैली:

कबीर की रचनाएं लोकभाषा में हैं – सधुक्कड़ी, अवधी, भोजपुरी, ब्रज और पंजाबी के मेल से बनी हुई भाषा। उन्होंने खड़ी बोली में कविता की शुरुआत की।उनके दोहों में गहरी आध्यात्मिकता, व्यावहारिक ज्ञान, व्यंग्य और जीवनबोध समाहित है।

सामाजिक प्रभाव:
  • उन्होंने एकता की बात की, जब भारत सामाजिक विद्वेष से ग्रस्त था।

  • उन्होंने जातिवाद, धर्म के नाम पर शोषण, और गुरु-पुरोहितवाद का विरोध किया।

  • वे संत समाज के अगुआ थे और निर्गुण भक्ति आंदोलन के आधार स्तंभ बने।

प्रमुख रचनाएं:
  1. बीजक – कबीर का प्रमुख ग्रंथ, जो रमैनी, साखी और सबद में विभाजित है।

  2. कबीर के दोहे – छोटे दो पंक्तियों के छंद, जिनमें जीवन का सार समाहित है।

कबीर के कुछ प्रसिद्ध दोहे:

"बुरा जो देखन मैं चला, बुरा न मिलिया कोय।जो दिल खोजा आपना, मुझसे बुरा न कोय।।"

"पोथी पढ़ि पढ़ि जग मुआ, पंडित भया न कोय।ढाई आखर प्रेम का, पढ़े सो पंडित होय।।"

"माला फेरत जुग भया, गया न मन का फेर।कर का मनका डार दे, मन का मनका फेर।।"

आधुनिक युग में प्रभाव:

कबीर की वाणी आज भी जनजागृति, सामाजिक समरसता और धर्मनिरपेक्षता के लिए प्रकाशस्तंभ है। उनकी कविताएं स्कूलों, विश्वविद्यालयों, भजन मंडलियों, राजनैतिक आंदोलनों और जनआंदोलनों में गूंजती रही हैं।

संत कबीर न केवल एक संत या कवि थे, वे युगद्रष्टा थे। वे शब्दों से क्रांति लाने वाले साधक थे, जिन्होंने 'राम' को मंदिर की दीवारों से बाहर निकाल कर हर दिल की धड़कन में स्थापित किया। वे जीवन की कठिनाइयों में सच्चे धर्म और सत्य की लौ जलाते रहे।

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