top of page

लोकनायक गोस्वामी तुलसीदास: सांस्कृतिक पुनर्जागरण के अमर शिल्पी

  • Writer: Wiki Desk(India)
    Wiki Desk(India)
  • Dec 7, 2019
  • 4 min read
ree
लोकनायक गोस्वामी तुलसीदास: सांस्कृतिक पुनर्जागरण के अमर शिल्पी (एक दिव्य चेतना, जिसने धर्म, समाज और संस्कृति को एकत्रित कर राष्ट्र को नई दिशा दी)

जब कोई समाज अपने मूल्यों से भटक जाता है, जब धर्म केवल एक कर्मकांड बनकर रह जाता है और जब व्यवस्था की रीढ़ टूट जाती है — तब ईश्वर किसी लोकनायक को अवतरित करता है। महाभारत के बाद भारत का सामाजिक, धार्मिक और सांस्कृतिक ताना-बाना बिखर चुका था। राजसत्ता असहाय थी, जनता भयभीत और दिशाहीन थी। विदेशी आक्रांताओं के अत्याचार, समाज में फैली आर्थिक असमानता, शिक्षा का पतन और आत्मगौरव की समाप्ति—यह सब एक ऐसी स्थिति को जन्म दे रहे थे, जहाँ भारतीय आत्मा स्वयं को ही भूल चुकी थी। ऐसे समय में गोस्वामी तुलसीदास का आविर्भाव एक युगांतकारी घटना थी। उन्होंने राम के आदर्शों को माध्यम बनाकर भारतीय समाज की चेतना को न केवल झकझोरा, बल्कि उसे दिशा, श्रद्धा और साधना दी।

अंधकार के युग में राम के प्रकाश की पुनर्स्थापना

तुलसीदास ने उस समय समाज में पुनः राम का प्रतिष्ठापन किया, जब जनमानस आशा हीन हो चुका था। उन्होंने राम को केवल एक राजा या पौराणिक पात्र के रूप में नहीं, अपितु धर्म, सत्य, मर्यादा और करुणा के जीवंत प्रतीक के रूप में प्रस्तुत किया। उन्होंने यह घोषणा की कि जब-जब धर्म की हानि होगी, अधर्म बढ़ेगा, तब-तब प्रभु स्वयं अवतरित होंगे:

“जब जब होई धर्म की हानि, बढ़हि असुर अधम अभिमानी।तब तब प्रभु धरि मनुज शरीरा, हरहि कृपा निधि सज्जन पीरा॥”

यह केवल एक श्लोक नहीं, बल्कि उस समय के भयभीत समाज के लिए आत्मविश्वास की पुकार थी।

भक्ति और समाज सुधार का विलक्षण संगम

गोस्वामी तुलसीदास केवल भक्त नहीं थे, वे एक सामाजिक शिल्पी भी थे। उनके विचारों में केवल ईश्वर भक्ति नहीं, बल्कि उस भक्ति से उत्पन्न सामाजिक चेतना भी प्रकट होती है। उन्होंने भक्ति के माध्यम से समाज में संयम, मर्यादा और कर्तव्य का बीज बोया। जब संन्यासियों और पाखंडी साधुओं ने धर्म को व्यापार बना दिया था, तब तुलसी ने गृहस्थ धर्म को ही सर्वोच्च तप माना। उन्होंने दिखाया कि सच्ची साधना जीवन की जटिलताओं से भागने में नहीं, बल्कि उसमें ईश्वर को खोजने में है।

समन्वय का मंत्र: विविधताओं में एकता का सृजन

तुलसीदास समन्वय के महान शिल्पी थे। उन्होंने शैव, वैष्णव, शाक्त, निर्गुण और सगुण भक्ति धाराओं को एक ही धारा में पिरोया। उन्होंने शिव की आराधना करते हुए राम को ईश्वर कहा और राम के द्वारा शिव की उपासना को श्रेष्ठ बताया। "शिव द्रोही मम दास कहावा, सो नर सपनेहुं मोहि न भावा"— यह पंक्ति भारतीय धर्म के भीतर समरसता का अद्वितीय उदाहरण है। तुलसी ने भक्ति, ज्ञान और कर्म को एक ही पथ के तीन आयाम माना और रामचरितमानस में सभी को स्थान दिया।

रामचरितमानस: राष्ट्र निर्माण का सांस्कृतिक ग्रंथ

तुलसी की सबसे महान कृति रामचरितमानस न केवल एक महाकाव्य है, बल्कि भारत की आत्मा का संकलन है। उन्होंने जब देखा कि संस्कृत के शास्त्र जनसामान्य की पहुँच से दूर होते जा रहे हैं, तब उन्होंने अवधी जैसी लोकभाषा में एक ऐसा ग्रंथ रचा जो जन-जन का प्रेरणास्रोत बन गया। रामचरितमानस में तुलसी ने दर्शन, नीति, भक्ति, राजनीति, युद्धनीति, पारिवारिक संबंधों और सामाजिक मर्यादा—हर विषय को छुआ और उसे लोक में प्रतिष्ठित किया।

काव्य की संवेदना और भाषा की माधुरी

तुलसीदास की भाषा, छंद और भाव इतनी गहराई और प्रभाव से परिपूर्ण हैं कि उनका एक-एक दोहा लोकजीवन में आदर्श की तरह जीवित हो गया। “बड़ा हुआ तो क्या हुआ जैसे पेड़ खजूर”, “पर उपदेश कुशल बहुतेरे”, जैसे असंख्य पद आज भी समाज में नैतिकता और विवेक का संचार करते हैं। उनका कवि-हृदय साधारण भाषा में असाधारण भाव व्यक्त करता है। उन्होंने ब्रज और अवधी, दोनों पर समान अधिकार दिखाया और भाषा को ही अपने विचारों का सेतु बनाया।

धार्मिक विश्वास, सामाजिक चेतना और वैचारिक ध्रुवता

तुलसीदास ने हिन्दू समाज की धार्मिक जड़ों को मजबूत करते हुए, उन पर आधुनिक चेतना का आवरण चढ़ाया। वे वर्णाश्रम धर्म में आस्था रखते थे, लेकिन उसमें शुद्धिकरण की चेतना भी भरते थे। वे मूर्तिपूजा, तीर्थयात्रा, वेद-पुराण, और परंपरागत धार्मिक विधियों में विश्वास रखते हुए, उसमें निष्ठा और संयम का भाव भरते हैं। तुलसीदास के लिए जीवन का परम उद्देश्य रामभक्ति था। उन्होंने कहा—

“होइहि सोइ जो राम रचि राखा”(जो राम ने रच दिया है, वही होगा)

उनके लिए राम नाम ही जीवन था, और उस नाम का स्मरण ही मुक्ति का साधन।

लोकनायक के रूप में तुलसी की विरासत

गोस्वामी तुलसीदास केवल एक संत, कवि या विचारक नहीं थे, वे लोकनायक थे—ऐसे लोकनायक जिन्होंने समाज को उसके मूल से जोड़ते हुए आत्मा की गहराई तक झकझोरा। उन्होंने एक ऐसे समाज की नींव रखी जो भविष्य में भारत की सांस्कृतिक धुरी बन सका। उनका साहित्य न केवल सौंदर्य का विषय है, बल्कि धर्म, दर्शन, नीति और समाज के गहन मंथन का परिणाम है।

1680 में तुलसीदास का देहांत हुआ, लेकिन वे आज भी जीवित हैं—उनके दोहों में, चौपाइयों में, रामनाम की महिमा में, और उस भारत की आत्मा में जो आज भी मर्यादा पुरुषोत्तम राम को आदर्श मानती है।

गोस्वामी तुलसीदास ने उस काल में जब समाज दिशाहीन था, राम के आदर्श से उसे दिशा दी, आत्मगौरव और आत्मबल प्रदान किया। वे संत भी थे, समाज सुधारक भी, भविष्यद्रष्टा भी, और भारत की संस्कृति के अमर स्तंभ भी। वे वास्तव में एक दिव्य, भव्य और प्रभावशाली लोकनायक थे।

bottom of page