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भारत में ब्रिटिश साम्राज्य का प्रभाव और स्वतंत्रता संग्राम

  • Writer: Wiki Desk(India)
    Wiki Desk(India)
  • Dec 7, 2010
  • 4 min read
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भारत में ब्रिटिश शासन का आगमन एक व्यापारिक कंपनी के रूप में हुआ, परंतु समय के साथ यह शासन व्यवस्था में बदल गया और लगभग दो सौ वर्षों तक देश को राजनैतिक, सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक रूप से प्रभावित करता रहा। ब्रिटिश साम्राज्य का प्रभाव इतना गहरा था कि उसने भारत की पारंपरिक संरचना को जड़ से हिला दिया। लेकिन इसी शासन के दौरान भारत में एक ऐसी चेतना भी जन्मी, जिसने गुलामी की जंजीरों को तोड़कर स्वतंत्रता की ओर बढ़ने का रास्ता तैयार किया।

ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी का आगमन और राजनीतिक प्रभुत्व

1600 ईस्वी में ईस्ट इंडिया कंपनी को ब्रिटिश क्राउन द्वारा भारत में व्यापार करने की अनुमति दी गई। पहले पुर्तगाली, फिर डच और फ्रांसीसी व्यापारियों के बीच प्रतिस्पर्धा करते हुए अंग्रेज़ों ने धीरे-धीरे भारत के कई बंदरगाहों पर अपनी पकड़ बनाई। 1757 की प्लासी और 1764 की बक्सर की लड़ाइयों ने उन्हें बंगाल की सत्ता दिला दी, जो उनके भारत विजय का आधार बनी। अगले सौ वर्षों में उन्होंने कूटनीति, युद्ध, संधियों और छल से धीरे-धीरे पूरे भारत को अपने नियंत्रण में ले लिया। 1857 के विद्रोह के बाद ईस्ट इंडिया कंपनी का शासन समाप्त हुआ और भारत सीधे ब्रिटिश क्राउन के अधीन आ गया।


आर्थिक शोषण और औद्योगिक विनाश

ब्रिटिश साम्राज्य का सबसे तीव्र प्रभाव भारतीय अर्थव्यवस्था पर पड़ा। कृषि को व्यापारिक फसलों की ओर मोड़ दिया गया, जिससे खाद्य संकट उत्पन्न हुआ। कर वसूली की नीतियाँ किसानों के लिए विनाशकारी रहीं। कुटीर उद्योग और पारंपरिक शिल्प को नष्ट कर अंग्रेज़ों ने भारत को केवल कच्चा माल प्रदान करने वाला उपनिवेश बना दिया। भारतीय बाजारों को ब्रिटिश माल के लिए खोल दिया गया और भारत के हस्तनिर्मित वस्त्रों को सस्ते मशीन निर्मित ब्रिटिश वस्त्रों से प्रतिस्थापित कर दिया गया। इस आर्थिक नीति ने लाखों कारीगरों और मजदूरों को बेरोजगार बना दिया।


प्रशासनिक ढांचा और कानूनी प्रणाली का प्रभाव

ब्रिटिशों ने अपने शासन को बनाए रखने के लिए एक केंद्रीकृत और सख्त प्रशासनिक ढांचा खड़ा किया। भारतीयों को प्रशासन में निम्न स्तर तक सीमित रखा गया। भारतीय दंड संहिता, पुलिस, न्यायालय और सिविल सेवा की स्थापना हुई, लेकिन यह सभी व्यवस्थाएँ जनता की सेवा की बजाय सत्ता को नियंत्रित रखने के लिए थी। हालांकि इस प्रक्रिया ने भारत में एक आधुनिक नौकरशाही और कानूनी प्रणाली की नींव रखी, परंतु इसकी आत्मा अंग्रेज़ी प्रभुत्व से निर्देशित थी।


शिक्षा और सांस्कृतिक परिवर्तन

मैकाले की शिक्षा नीति ने भारतीय शिक्षा व्यवस्था को पूरी तरह बदल दिया। अंग्रेज़ी को शिक्षा का माध्यम बनाकर एक ऐसा वर्ग तैयार किया गया जो भारतीय होकर भी मानसिक रूप से पाश्चात्य विचारों से संचालित था। इस नीति ने भारतीय भाषाओं और ज्ञान परंपराओं को उपेक्षित किया, लेकिन इसके साथ-साथ एक शिक्षित मध्यमवर्ग भी उभरा जो बाद में स्वतंत्रता संग्राम का विचारशील नेतृत्व बना। यही वर्ग पत्रकारिता, विधि, साहित्य और समाज सुधार आंदोलनों में सक्रिय हुआ।

धार्मिक-सामाजिक सुधार आंदोलनों का उदयब्रिटिश प्रभाव के दौरान भारत में सामाजिक कुरीतियों के विरुद्ध जागरूकता बढ़ी। राजा राममोहन राय, ईश्वरचंद्र विद्यासागर, स्वामी दयानंद सरस्वती और स्वामी विवेकानंद जैसे नेताओं ने सती प्रथा, बाल विवाह, अस्पृश्यता आदि के विरुद्ध आंदोलनों का नेतृत्व किया। इन आंदोलनों ने भारत में सामाजिक चेतना का विकास किया और स्वतंत्रता संग्राम के लिए एक नैतिक धरातल तैयार किया। धार्मिक सहिष्णुता, महिला शिक्षा और समता जैसे विचार धीरे-धीरे जनमानस में घर करने लगे।

1857 का विद्रोह: स्वतंत्रता की पहली चिंगारीब्रिटिश शासन के विरुद्ध पहला बड़ा संगठित विरोध 1857 में हुआ जिसे भारत का प्रथम स्वतंत्रता संग्राम कहा जाता है। यह विद्रोह केवल एक सैन्य विद्रोह नहीं था, बल्कि इसमें किसान, जमींदार, पुरातन सामंती वर्ग और जनता की व्यापक भागीदारी थी। यद्यपि यह प्रयास असफल रहा, परंतु इसने भारतीयों में स्वाभिमान और एकजुटता की भावना जागृत की। इसके बाद ब्रिटिशों ने दमनात्मक नीतियाँ अपनाईं लेकिन साथ ही भारतीयों को राजनीतिक भागीदारी के कुछ अवसर भी देने शुरू किए।

भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस और राष्ट्रवाद का उदय1885 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना के साथ भारत में संगठित राष्ट्रवादी आंदोलन का आरंभ हुआ। प्रारंभ में कांग्रेस का स्वरूप विनम्र और याचिकात्मक था, लेकिन 1905 के बंग-भंग के बाद इसमें उग्र राष्ट्रवाद की भावना उभरने लगी। बाल गंगाधर तिलक, बिपिन चंद्र पाल और लाला लाजपत राय जैसे नेताओं ने स्वदेशी, बहिष्कार और स्वराज्य जैसे विचारों को आगे बढ़ाया। गांधीजी के आगमन के बाद आंदोलन को व्यापक जनाधार मिला।

गांधी युग और जन-आंदोलन की धारमहात्मा गांधी ने भारतीय राजनीति में नैतिकता, सत्याग्रह और अहिंसा को नया स्वरूप दिया। 1919 में रोलेट एक्ट के विरोध से लेकर 1942 के ‘भारत छोड़ो आंदोलन’ तक गांधीजी के नेतृत्व में भारत का स्वतंत्रता संग्राम एक जन-आंदोलन बन चुका था। किसानों, महिलाओं, श्रमिकों और विद्यार्थियों ने व्यापक रूप से आंदोलन में भाग लिया। उनके नेतृत्व में कांग्रेस एक जन-राजनीतिक संगठन के रूप में स्थापित हुई।

क्रांतिकारी आंदोलन और वैचारिक विविधताजहाँ गांधीजी अहिंसक मार्ग के प्रवर्तक थे, वहीं भगत सिंह, चंद्रशेखर आज़ाद, रामप्रसाद बिस्मिल जैसे क्रांतिकारियों ने सशस्त्र क्रांति का रास्ता अपनाया। इन युवाओं ने ब्रिटिश दमन के विरुद्ध बलिदान का मार्ग चुना और देश की स्वतंत्रता के लिए प्राणों की आहुति दी। इसी तरह सुभाष चंद्र बोस ने आज़ाद हिंद फौज का गठन कर सैन्य मार्ग से आज़ादी प्राप्त करने का प्रयास किया। इस वैचारिक विविधता ने स्वतंत्रता आंदोलन को एक व्यापक और बहुआयामी स्वरूप दिया।

आजादी की ओर अंतिम कदमद्वितीय विश्व युद्ध के बाद ब्रिटिश साम्राज्य आर्थिक और राजनीतिक रूप से कमज़ोर पड़ चुका था। एक ओर जहाँ भारत में आंदोलन तीव्र थे, वहीं ब्रिटेन में भी उपनिवेशों के प्रति जन समर्थन घट रहा था। नेहरू, पटेल, मौलाना आज़ाद जैसे नेताओं के कुशल नेतृत्व और अंतर्राष्ट्रीय दबाव के बीच अंततः ब्रिटिश सरकार ने 15 अगस्त 1947 को भारत को स्वतंत्रता प्रदान की।

निष्कर्ष

भारत में ब्रिटिश साम्राज्य का प्रभाव केवल एक उपनिवेशिक शासन नहीं था, बल्कि यह भारतीय समाज, संस्कृति, अर्थव्यवस्था और मानसिकता के पुनर्रचना का युग भी रहा। ब्रिटिश शासन ने भारत को जहाँ एक ओर आर्थिक शोषण, सांस्कृतिक विकृति और दमन की राह दिखाई, वहीं दूसरी ओर इसी शासन के विरुद्ध संघर्ष करते हुए भारत ने अपनी राष्ट्रीय पहचान, सामाजिक एकता और लोकतांत्रिक चेतना को पुनः प्राप्त किया। स्वतंत्रता संग्राम केवल सत्ता परिवर्तन का संघर्ष नहीं था, यह एक आत्म-संवेदना, सांस्कृतिक पुनरुद्धार और आत्मसम्मान की खोज की यात्रा थी, जिसने भारत को दासता से मुक्ति दिलाकर एक स्वतंत्र, लोकतांत्रिक और आत्मनिर्भर राष्ट्र में परिवर्तित किया।

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