“संस्कृति का स्वरूप: अतीत से वर्तमान तक की यात्रा”
- Wiki Desk

- Dec 7, 2019
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– भारतीय आत्मा का बोध, सभ्यता से अलग एक विशिष्ट पहचान

परिचय: संस्कृति – आत्मा का आईना
संस्कृति किसी भी राष्ट्र, जाति या समुदाय की आत्मा होती है। यह केवल परंपराओं और रस्मों का समूह नहीं, बल्कि मानव जीवन के मूल्यों, आदर्शों, दृष्टिकोणों और आचरणों का समग्र रूप है। संस्कृति में व्यक्ति और समाज की चेतना, उसका चिंतन, उसकी संवेदना और उसका अस्तित्व समाहित होता है। यही कारण है कि जब किसी संस्कृति की बात की जाती है, तो हम केवल उसके भौतिक स्वरूप को नहीं, बल्कि उसकी आध्यात्मिक और नैतिक गहराई को भी पहचानते हैं। संस्कृति का वास्तविक अर्थ संस्कार, सुधार, परिष्कार, शुद्धि और सुशोभन जैसे तत्वों से है, जो किसी भी समाज को केवल जीने का ढांचा ही नहीं, बल्कि एक उद्देश्य और दिशा भी प्रदान करते हैं।
सभ्यता और संस्कृति: दो समानांतर परंतु भिन्न धारणाएं
वर्तमान समय में संस्कृति और सभ्यता को एक-दूसरे का पर्याय मान लिया गया है, जिसके कारण इनके यथार्थ में भारी भ्रम उत्पन्न हो गया है। जबकि गहराई से देखा जाए, तो यह दोनों भिन्न आधारों पर खड़े हैं। सभ्यता बाह्य जीवन शैली की अभिव्यक्ति है – जिसमें रहन-सहन, खान-पान, वस्त्र-विन्यास, तकनीक और सामाजिक व्यवहार की सज्जा आती है। दूसरी ओर, संस्कृति आंतरिक चेतना, विचारों की गहराई, जीवन के प्रति दृष्टिकोण और मूल्यों का समावेश है। सभ्यता को भौतिक रूप में देखा और अपनाया जा सकता है, परंतु संस्कृति का आत्मसात् करना एक दीर्घ साधना है। सभ्यता को नकल किया जा सकता है, पर संस्कृति को केवल जिया जा सकता है। सभ्यता क्षणिक सुख की साधक होती है, जबकि संस्कृति दीर्घकालिक शांति और संतुलन की पोषक होती है।
भारतीय संस्कृति: एक सनातन धरोहर
भारतीय संस्कृति विश्व की प्राचीनतम और सर्वाधिक जीवंत संस्कृतियों में से एक है। इसकी जड़ें वैदिक काल तक जाती हैं, जहां ऋषियों ने ज्ञान, धर्म और आत्मिक चेतना के समन्वय से एक ऐसी सांस्कृतिक धारा प्रवाहित की, जो आज तक अविरल बह रही है। ‘वसुधैव कुटुंबकम्’ जैसे सिद्धांत, जो संपूर्ण विश्व को एक परिवार मानते हैं, भारतीय संस्कृति के वैश्विक दृष्टिकोण को दर्शाते हैं। भारतीय संस्कृति केवल धार्मिक या आध्यात्मिक नहीं, बल्कि वैज्ञानिक दृष्टिकोण, पर्यावरण चेतना, सामाजिक उत्तरदायित्व और मानवता के भावों से युक्त एक बहुआयामी चेतना है। यही संस्कृति भारत को न केवल एक राष्ट्र के रूप में, बल्कि एक जीवंत विचारधारा के रूप में प्रस्तुत करती है।
आश्रम व्यवस्था और जीवन का संतुलन
प्राचीन भारत में जीवन को चार आश्रमों – ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ और संन्यास – में विभाजित कर एक संतुलित सामाजिक व्यवस्था स्थापित की गई। यह केवल जीवन के चरण नहीं थे, बल्कि एक ऐसी संस्कृति का हिस्सा थे जिसमें हर व्यक्ति अपने जीवनकाल में न केवल स्वयं के विकास, बल्कि समाज और राष्ट्र की सेवा का दायित्व भी निभाता था। यह प्रणाली व्यक्ति को आत्मानुशासन, संयम, सेवा और त्याग के मार्ग पर चलने की प्रेरणा देती थी। धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष – इन चार पुरुषार्थों की प्राप्ति के लिए आश्रम व्यवस्था एक सुगठित साधना पथ थी, जो आज भी भारतीय संस्कृति की श्रेष्ठता को प्रमाणित करती है।
भारतीय संस्कृति: मानवता की सच्ची अभिव्यक्ति
भारतीय संस्कृति केवल एक क्षेत्रीय पहचान नहीं है, यह एक ऐसी विचारधारा है जो मानवता को अपना आधार मानती है। इसके सिद्धांत किसी विशेष जाति, धर्म या राष्ट्र तक सीमित नहीं हैं। ‘सर्वे भवन्तु सुखिनः’ की भावना हो या ‘लोकाः समस्ताः सुखिनो भवन्तु’ की प्रार्थना, यह संस्कृति हमेशा सम्पूर्ण मानव समाज के कल्याण की आकांक्षा रखती है। यही कारण है कि विदेशी आक्रमणों, राजनीतिक उथल-पुथल और सांस्कृतिक संघर्षों के बावजूद, भारतीय संस्कृति अपनी आत्मा को सुरक्षित रखने में सफल रही है। उसकी लचीलापन, समन्वयशीलता और प्राणशीलता ऐसी विशेषताएं हैं, जिन्होंने इसे समय की सभी चुनौतियों के बीच न केवल जीवित रखा, बल्कि और अधिक पुष्ट किया।
आधुनिक भारत और संस्कृति का नवीन स्वरूप
ब्रिटिश उपनिवेशवाद और पश्चिमी विचारधारा के प्रभाव ने भारतीय संस्कृति के स्वरूप को प्रभावित किया। विज्ञान, धर्मनिरपेक्षता और उपभोक्तावाद के प्रभाव में पारंपरिक मान्यताएं पीछे हटने लगीं और एक नये सांस्कृतिक ढांचे का उदय हुआ। संयुक्त परिवारों का विघटन, धर्म की सार्वजनिक भूमिका में कमी, भौतिकवाद की बढ़ती प्रवृत्ति – यह सभी उस सामाजिक संक्रमण के प्रमाण हैं, जिसमें संस्कृति ने अपने अस्तित्व को बनाए रखने के लिए पुनर्संरचना की। आधुनिक भारतीय संस्कृति अब एक नई पहचान की ओर अग्रसर है, जिसमें विज्ञान और अध्यात्म, तर्क और श्रद्धा, परंपरा और नवाचार के बीच संतुलन स्थापित करने का प्रयास किया जा रहा है।
पश्चिम और पूर्व का समन्वय: नवजागरण की दिशा
आधुनिक संस्कृति में जहां यूरोपीय पुनर्जागरण की छाया दिखती है, वहीं भारत ने उस पर अपनी आध्यात्मिकता और मानवतावादी दृष्टिकोण की छाप भी अंकित की है। यह नवजागरण एक ऐसी चेतना लेकर आया है, जो महिला सशक्तिकरण, सामाजिक न्याय, पर्यावरण संरक्षण और वैश्विक एकता जैसे मूल्यों को महत्व देती है। अब संस्कृति केवल परंपराओं की रक्षा नहीं कर रही, बल्कि उसे नई पीढ़ियों के लिए उपयोगी और प्रासंगिक बनाकर प्रस्तुत भी कर रही है। इस परिवर्तनशील संसार में संस्कृति का यह रूप अधिक व्यावहारिक, सृजनशील और जागरूक बन गया है।
शहरीकरण, पलायन और सांस्कृतिक परिवर्तन
विकास की दौड़ में गाँवों की सांस्कृतिक गरिमा धीरे-धीरे उपेक्षित होती जा रही है। शहरीकरण ने जीवनशैली में तीव्र परिवर्तन लाया है, जिससे लोग अपनी जड़ों से कटते जा रहे हैं। पारंपरिक पर्व, लोकगीत, रीति-रिवाज और भाषाएं धीरे-धीरे हाशिये पर जा रहे हैं। तकनीकी विकास और उपभोग की संस्कृति ने मानवीय संबंधों की आत्मीयता को भी प्रभावित किया है। ऐसे में भारतीय संस्कृति की आत्मा को बचाने और पुनर्जीवित करने की आवश्यकता पहले से कहीं अधिक है, ताकि हम केवल आधुनिक न बनें, बल्कि अपने सांस्कृतिक मूल्यों के साथ भी जुड़ें रहें।
✅ निष्कर्ष: संस्कृति का सतत प्रवाह
अंततः यह सत्य है कि संस्कृति कोई स्थिर वस्तु नहीं, अपितु एक सतत प्रवाह है। यह समय, परिस्थिति और आवश्यकताओं के अनुसार अपना स्वरूप बदलती है, परंतु इसकी आत्मा – मानवता, अध्यात्म, करुणा और विवेक – सदा अटल रहती है। भारत की सांस्कृतिक परंपरा इसी प्रवाह की प्रतीक है, जिसमें विविधताओं के बीच एकता, परिवर्तन में स्थायित्व और भौतिकता में अध्यात्म का अनुपम समन्वय देखने को मिलता है। आज आवश्यकता है कि हम अपनी संस्कृति की गहराई को समझें, उसके मौलिक स्वरूप को आत्मसात करें और आने वाली पीढ़ियों तक उसका पावन संदेश पहुंचाएं।



