आदिशक्ति का अलौकिक रूप – श्री मालण बाईसा
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- Dec 7, 2024
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Updated: Jul 14

।। "ॐ श्री गणेशाय नमः" ।।
राज राजेश्वरी परब्रह्म विश्वरूप भगवती आदिशक्ति श्री मालण बाईसा
(सृष्टि की एकमात्र माँ भगवती जगदम्बा पार्वती का अवतार जिन्हें बाईसा/बहन के रूप में भी पूजा जाता है)
आदि शक्ति, जिन्हें महादेवी दुर्गा के रूप में भी जाना जाता है, सनातन धर्म में प्रमुखतम देवी मानी जाती हैं। वे सृष्टि की सर्वोच्च शक्ति एवं समस्त जगत की जननी हैं।
आदिशक्ति का स्वरूप
शक्ति का प्रतीक: आदिशक्ति को निराकार, परब्रह्म, और ब्रह्मांड से परे एक अनंत, अद्वितीय शक्ति के रूप में जाना जाता है।
शाक्त सम्प्रदाय: इस परंपरा के अनुसार, आदिशक्ति मूलतः निर्गुण हैं, परन्तु सृष्टि की आवश्यकता या युगधर्म की रक्षा हेतु वे सगुण रूप में अवतरित होती हैं।

पौराणिक संदर्भ
श्री देवी भागवत: इस ग्रंथ में वर्णित है कि जब पृथ्वी पर अधर्म और असुरी शक्तियों का अत्याचार बढ़ता है, तब आदिशक्ति विभिन्न युगों में देवताओं और मानवता की रक्षा हेतु अवतरित होती हैं।
श्री मार्कण्डेय पुराण और अन्य: इन ग्रंथों में आदिशक्ति के रूपों – महालक्ष्मी, महासरस्वती, महाकाली – का विस्तृत वर्णन मिलता है।
सांस्कृतिक महत्व
आदिशक्ति का महत्व केवल आध्यात्मिक नहीं, बल्कि सांस्कृतिक भी है। वे भारतीय समाज में नारीत्व की गरिमा, मातृत्व की करूणा और शक्ति के तेजस्वी स्वरूप का प्रतिनिधित्व करती हैं।
सम्राट विक्रमादित्य और परम भक्तिभाव
भारतवर्ष में एक महान सम्राट हुए – सम्राट विक्रमादित्य। विक्रम संवत का आरंभ 57 ईसा पूर्व शकों पर विजय के बाद उन्हीं ने किया। वे न्यायप्रिय, प्रजावत्सल और परम भक्त थे।
वे देवी हरसिद्धि के अनन्य उपासक थे। उन्होंने नवरात्रि के समय बारह वर्षों तक नित्य शीश अर्पण कर देवी को प्रसन्न किया। देवी ने उन्हें वरदान दिया – "मैं तेरे कुल में समय-समय पर अवतरित होती रहूंगी, जब तक मेरी इच्छा के विरुद्ध कोई कार्य नहीं होगा।"
परमार वंश में आदिशक्ति के दिव्य अवतार:
श्री वांकल देवी: महादानी राजा जगदेव परमार की कन्या, जिनका विख्यात मंदिर विरातरा, चौहटन (बाड़मेर) में स्थित है।
श्री हंसावती देवी: भुज रियासत के जजा परमार के घर जन्मी।
श्री शिव्या/सौहब देवी: भुज रियासत के परमार वंश में जन्मीं।
श्री सच्चियाय माता: चाहड़राव परमार की कन्या, जिनका प्राचीन मंदिर शिव (बाड़मेर) में है। इन्हें ओसवाल (जैन) समाज अपनी कुलदेवी मानता है।
श्री माल्हण/मालण बाईसा: जिनका जन्म सं. 86 माघ सुदी चौदस को हुआ और जिनके मंदिर जानरा, जयसिंधर, हरसाणी, मगरा आदि में स्थित हैं।
श्री लालर देवी: जिन्होंने अगले जन्म में रानी रूपादे के रूप में जन्म लिया।
श्री रानी रूपादे: जिनका विवाह रावल मल्लिनाथ जी से हुआ। इनके मंदिर तिलवाड़ा (बाड़मेर) में हैं।

श्री मालण बाईसा मंदिर, जानरा(जैसलमेर) PC: Social Media
श्री मालण बाईसा का दिव्य इतिहास
या देवी सर्वभूतेषु मातृ रूपेण संस्थिता।नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः।
आदि शक्ति अविनाशी, जग में जोराळी।
अम्बे रूप अवतरी,
मालण मुगटाळी।।
अकन कंवारी अम्बे,
तुम सब की बाई।
इज्जत राखो ईसरी,
जानरे मढ़ जाई।।
ॐ जय मालण बाई।
संवत् 86 में जैसलमेर के जुनागढ़, जानरा में परमार पाटवी राजा बेरीसाल की रानी अमृत कंवर के गर्भ से मालण बाई का दिव्य अवतार हुआ। जन्म के साथ ही कन्या ने स्वयं स्नान किया और मां से पूर्व भोजन ग्रहण करने लगी।
यह देखकर राजा ने कन्या को जंगल में छोड़ने का आदेश दिया। सेवक ने मार्ग में एक जलती हुई नियाय (भट्ठी) में कन्या को डाल दिया। लेकिन अग्नि ने भी उन्हें नहीं जलाया। अग्नि में जीवित देखकर कुम्हार जगु ने उन्हें दिव्य रूप मानकर गोद लिया।
गुरु श्री शंकरनाथ जी की आज्ञा से जगु की धर्मपत्नी ने सूर्य को अर्घ्य देकर कन्या को दूध पिलाया। कन्या का नामकरण "श्री मालण बाईसा" रखा गया।
कालांतर में उनके साथ दो और कन्याएँ – केवलाँ और लाला – जुड़ीं। तीनों सखियाँ बनीं। एक दिन खेल के समय राजा बेरीसाल वहाँ से घोड़ों के साथ निकले। बाईसा ने गुरू के नाम की रेखा खींच दी। घोड़े रेखा पार करते ही मर गये। तब राजा को बोध हुआ कि यह वही कन्या है जिसे उन्होंने छोड़ दिया था।
राजा ने क्षमा मांगी, पर श्री मालण ने कहा – "मैं अब अपने ननिहाल कोहरा (जैसलमेर) में ही रहूँगी।"
किशोरावस्था में मामा ने जबरन विवाह तय किया। श्री मालण ने कहा – "मैं अखण्ड कुवाँरी हूँ, विवाह नहीं करूंगी।" लेकिन विवाह की तैयारी शुरू हो गई। फेरे के समय, तीसरे फेरे में श्री मालण, केवलाँ और लाला – तीनों आकाश की ओर उड़ चलीं। हंस पर सवार होकर "चिपलों की घाटी" में धावलु राक्षस का वध किया और जानरा में उतरीं।
जहाँ-जहाँ उनकी चंवरी की वस्तुएं गिरीं, वहाँ-वहाँ आज मंदिर बने हुए हैं।
वि.सं. 106 माघ सुदी तेरस को जगु कुम्हार के दर्शन के समय तीनों कन्याओं ने कहा –
"अब हम स्वर्ग जा रही हैं। जहां हम खड़ी हैं वहाँ गड़िया निकलेगी और वहीं मेरी पूजा होगी।" आज भी जानरा(जैसलमेर) की वह गड़िया मौजूद है, जहाँ श्रद्धालु सच्चे मन से जाकर मनोकामना पूर्ण करते हैं।





